गुरुवार, 6 नवंबर 2008

हिंदू शैतान बनाम ईसाई भगवान -1

सितम्बर में कर्नाटक के उत्तर कनाडा में था जब हिंदू बनाम ईसाई के सांप्रदायिक तनाव और चर्च के तोड़ने की घटना अखबारों की सुर्खिया बन रही थी । मैं कर्नाटक में आगामी संभावित बिधानसभा चुनावों के मद्देनज़र ओपिनियन पोल में जुटा था । उत्तर कनाडा में ये मेरा तीसरा दिन था । हिन्दुओ ने यहाँ भी चर्चो को निशाना बनाया था । यही पर मेरी मुलाकात रोजी से हुई। ४२ साल की इस महिला की बेकरी की दुकान है । मैं इसकी दुकान के पास के एक होटल में ठहरा था । ५-७ दिनों में अच्छी जान -पहचान हो गई थी । रोजी पहले हिंदू थी । पति की मृत्यु के बाद उसके सामने जब रोजी रोटी की समस्या खड़ी हुई तो इसने पास के दो -चार ईसाई घरों में सफाई वगैरह का काम शुरु किया । इसी क्रम में इसकी मुलाकात एक नन से हुई । वो उस घर में आती थी जहाँ रोजी काम करने जाती थी । उस नन ने इसको कोई अपना काम करने की सलाह दी, उसके छोटे बच्चो का हवाला दिया इसके बाद रोजी अपना कोई बिज़नस करने को तैयार तो हो गई लेकिन उसके सामने पूंजी का सवाल अब भी था । ऐसे में उसकी मदद की उसी नन ने । उसने रोजी को कही से ५०,००० रुपये का क़र्ज़ दिलवाया और उसकी बेकरी की दुकान खुलवाई । रोजी अब तक हिंदू ही थी । दुकान खुलने के बाद उसके घर का खर्च तो दुकान की आमदनी से चलता पर खर्च से ज्यादा बचना मुस्किल था जिससे क़र्ज़ अदा की जाए । क़र्ज़ की रकम दुकान खुलने के सात महीने के बाद भी क़र्ज़ की रकम जस की तस् थी। बकौल रोजी " मैं इसी दुकान से उतना नही कमा पा रही थी की क़र्ज़ भी चूकौ । तब रोजी के सामने ये विकल्प रखा गया की अगर बप्तिस्ता ले ले तो उसका पुरा क़र्ज़ केन्द्र सरकार के लोन योजना माफी की तरह माफ़ हो सकता है । अंत में वही हुआ उसने ईसाई धर्म स्वीकार किया और अपने ५०,००० के क़र्ज़ से मुक्त हुई। अब भाई एक गरीब हिंदू होने से अमीर ईसाई होना ज्यादा भला है । तो यह थी पी शांति के ईसाई बनने की कहानी । आदिवासी बहुल राज्यों में ऐसी अनेक शांति मिलेंगी जिनके साथ कमोबेश ऐसा ही कुछ हुआ होगा । ईसाई मतान्तरण उनके निज के विश्वास और धारणा का परिणाम नही बल्कि जिन्दगी जीने की उनकी जद्दोजहद और रोटी के संघर्ष का परिणाम है । मैं अबतक दसेक ऐसे लोगो से लोगो से मिल चुका हूँ जिनका मतान्तरण पहले क़र्ज़ देकर और बाद में उनका क़र्ज़ माफ़ कर के किया गया। क्रमश ........

घूमते - घूमते

दस महीने हुए एक मीडिया रिसर्च कंपनी से जुड़े हुए , मीडिया की मुख्यधारा से दूर और करीब इतना ही समय बीता ब्लॉग और लेखन से दूर। शुरू में अफसोस होता था कि कहां आ गया अखबारों और चैनलों कि दुनिया से दूर लगता था की कुछ खो रहा हूँ। इन दस महीनों में जितना कुछ देखा , सीखा जितने अनुभव मिले वो अविस्मरणीय रहे। जैसे जैसे देखता गया लगा की नहीं अब तक तो सब कुछ शेष था । जो खबरें , समस्याएं अखबारों की सुर्खिया बनती है उनपे खबर बनाना , घंटो सिगरेट और चाय की चुस्कियों के साथ जिरह करना और उन खबरों के बीच में रहना काफी अलग होता है ।
चाहे छत्तीसगढ़ के नक्सलियों की बात हो या उत्तर पूर्व के बोडो की ।
इन दस महीनो में त्रिपुरा के सोनामुरा से लेकर कन्याकुमारी तक और भद्रवाह से लेकर राजस्थान के जैसलमेर। दस महीनों में सोलह राज्य । बीच में काफी चाहा कि लिखने को पर समय नहीं निकल सका , जहां समय तो था पर संसाधन नहीं थे पिछला ब्लॉग मेरी बेवकूफी से डिलीट हो चुका था इस ब्लॉग का नया नाम सुशांत भाई ने सुझाया । कोशिश करूँगा नियमित रूप से कुछ पांऊ।