सोमवार, 19 अप्रैल 2010
कितना बदल गए भगवान
शुक्रवार, 19 मार्च 2010
Impact of TRP on Television News Content
Impact of TRP on Television News Content
टी आर पी - लोकतंत्र के चौथे खम्बे के लिए अभिशाप है या वरदान ? इसपर इन दिनों मीडिया में चर्चाएं जोरों पर है। जरा गौर कीजिये, देश के चार महानगरों के महज 10 हजार घरों के जागरूक दर्शकों की राय जान कर एक एजेन्सी यह तय कर देती है कि किस वक्त, किस चैनल का टी आर पी सबसे ज्यादा था और किसका, सबसे कम । ये चंद हज़ार लोग यह तय कर देते है कि सवा अरब लोगों की पसंद - नापसंद क्या है ? या सच कहें तो ये बयां करते हैं टीवी की (तथाकथित) काबिलियत को ।
अगर ये यही तक सीमित रहे तो शायद किसी को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन ये है नंबर १ की दौड़ जिससे टीवी का पूरा रेवेन्यु जुड़ा है ।
आज टीवी पर चलने वाले प्रोग्रामों को डिजाईन करने वाले प्रोड्यूसर और एडिटर नहीं बल्कि ये टी आर पी निर्धारित करते हैं। यह टी आर पी का ही खेल है कि आप घर पर जैसे ही रिमोट उठाते है कि देखें देश दुनिया का हाल , आप को पता चलता है कि साई बाबा बोलने लगे है । किसी चैनल पर आप को यह बताया जाता है कि यह मक्कारी है, यह भ्रम फैलाने कोशिश है, ये हजारो लाखो भक्तों का अपमान है । टी आर पी के युद्ध में फसे इन चैनल से आप आगे बढ़ते हैं तो अगले चैनल पर आपको यह बताया जाता है कि एक लड़की ने कैसे अपने अपमान का बदला लेने के लिए दुबारा धरती पर नागिन के रूप में जनम लिया है। ख़ुद दास मुंशी कह चुके हैं कि टी आर पी के इस तंत्र से उन्हें धमकी भी मिल चुकी है , ऐसी ही धमकी एक बी जे पी के एक लीडर को भी मिल चुकी है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले इस देश में आज इसपर आवाज़ उठाने वालो की कमी है . आज मीडिया को जरुरत है टैम रेटिंग और शुक्रवार के इस साप्ताहिक जाल से बाहर आने की और इसके मैकेनिज्म को बदलने के लिए सरकार , पत्रकारों और बाज़ार के प्रतिनिधियों को एक साथ कोशिश करने की। इसी प्रकार के प्रयासों में से एक है सी एम एस( सेंटर फॉर मीडिया स्ट्डीज ) के द्वारा २० मार्च २०१० को आयोजित ग्रुप डिस्कसन " IMPACT OF TRP ON TELEVISION NEWS CONTENT " । इसमें सम्मानित वक्ता है पंकज पचौरी- एनडीटीवी , एन के सिंह -BEA , अमित त्रिपाठी - जी न्यूज़ , बी वी राव - गवर्नंस नॉव, रचना बर्मन - टाइंमस ग्रुप , संजय रॉय -DLF
इस डिस्कसन में आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है ।
Time - 10:30 Am
Date - 20th March 2010
Venue - CMS RESEARCH HOUSE, 34 B, SAKET COMMUNITY CENTRE, SAKET PVR, SAKET , NEW DELHI - 110017
PH: P: 91 11 4054 5335 (D), 2686 7348, 2686 4020 M: 91 9718503610
avinash@cmsacademy.org
अगर ये यही तक सीमित रहे तो शायद किसी को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता लेकिन ये है नंबर १ की दौड़ जिससे टीवी का पूरा रेवेन्यु जुड़ा है ।
आज टीवी पर चलने वाले प्रोग्रामों को डिजाईन करने वाले प्रोड्यूसर और एडिटर नहीं बल्कि ये टी आर पी निर्धारित करते हैं। यह टी आर पी का ही खेल है कि आप घर पर जैसे ही रिमोट उठाते है कि देखें देश दुनिया का हाल , आप को पता चलता है कि साई बाबा बोलने लगे है । किसी चैनल पर आप को यह बताया जाता है कि यह मक्कारी है, यह भ्रम फैलाने कोशिश है, ये हजारो लाखो भक्तों का अपमान है । टी आर पी के युद्ध में फसे इन चैनल से आप आगे बढ़ते हैं तो अगले चैनल पर आपको यह बताया जाता है कि एक लड़की ने कैसे अपने अपमान का बदला लेने के लिए दुबारा धरती पर नागिन के रूप में जनम लिया है। ख़ुद दास मुंशी कह चुके हैं कि टी आर पी के इस तंत्र से उन्हें धमकी भी मिल चुकी है , ऐसी ही धमकी एक बी जे पी के एक लीडर को भी मिल चुकी है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले इस देश में आज इसपर आवाज़ उठाने वालो की कमी है . आज मीडिया को जरुरत है टैम रेटिंग और शुक्रवार के इस साप्ताहिक जाल से बाहर आने की और इसके मैकेनिज्म को बदलने के लिए सरकार , पत्रकारों और बाज़ार के प्रतिनिधियों को एक साथ कोशिश करने की। इसी प्रकार के प्रयासों में से एक है सी एम एस( सेंटर फॉर मीडिया स्ट्डीज ) के द्वारा २० मार्च २०१० को आयोजित ग्रुप डिस्कसन " IMPACT OF TRP ON TELEVISION NEWS CONTENT " । इसमें सम्मानित वक्ता है पंकज पचौरी- एनडीटीवी , एन के सिंह -BEA , अमित त्रिपाठी - जी न्यूज़ , बी वी राव - गवर्नंस नॉव, रचना बर्मन - टाइंमस ग्रुप , संजय रॉय -DLF
इस डिस्कसन में आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है ।
Time - 10:30 Am
Date - 20th March 2010
Venue - CMS RESEARCH HOUSE, 34 B, SAKET COMMUNITY CENTRE, SAKET PVR, SAKET , NEW DELHI - 110017
PH: P: 91 11 4054 5335 (D), 2686 7348, 2686 4020 M: 91 9718503610
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शनिवार, 5 सितंबर 2009
वातावरण फ़िल्म फेस्टिवल
वातावरण फ़िल्म फेस्टिवल २००९, २७ अक्टूबर से ३१ अक्टूबर तक इंडिया हैबिटाट मेंआयोजित हो रहा है । इस बार फेस्टिवल का थीम Climate Change & Sustainable Technologies है । फ़िल्म स्क्रीनिंग में इस बार देश विदेश की १०६ फिल्में दिखाइए जाएँगी. फेस्टिवल की शुरुआत २७ अक्टूबर से होगी। २७ से ३१ तक यहाँ कई वर्कशॉप , सेमिनार , सिमपोसियम , एक्सपो , अवार्ड फंक्शन , फ़िल्म बाज़ार और प्रदर्शनी आयोजित की जाएँगी जिसमे फ्री और पेड दोनों तरह के प्रोग्राम है ! फ़िल्म स्क्रीनिंग सभी लोगो के लिए फ्री है लेकिन आप अगर इसके लिए इंटेरेस्टेड है तो आपको इसके लिए एक फॉर्म भरना होगा जो निशुल्क है । अगर आप यहाँ होने वाले सेमिनारों में भाग लेना चाहते है तो इसके लिए आपको मामूली सा शुल्क देना होगा जो आपको उपलब्ध करवाने वाले सुविधओं के बदले में आपसे लिया जाएगा अगर आप इसके बारे में ज्यादा जानकारी चाहते है तो मेल करे cmsft@cmsindia.org dearavinash@gmail.com
मोबाइल - 9718503610 , 9990860610
अविनाश
मोबाइल - 9718503610 , 9990860610
अविनाश
गुरुवार, 13 नवंबर 2008
लक्ष्मी को छोड़ती लक्ष्मी
ग्लोबल वित्तीय संकट के चपेटे से आर्सेलर मित्तल के मुखिया लक्ष्मी मित्तल भी नही बचे । इस संकट में मित्तल को अब तक २५०० अरब का चूना लग चुका है । मंदी की मार से मित्तल के शेयर ८० % तक नीचे जा चूके है ।कभी १०४ डॉलर पर कारोबार करने वाला उनका शेयर २०-२५ डॉलर के बीच में झूल रहा है । वही उनका बाज़ार पूंजीकरण २०.५ अरब डॉलर पर आ चुका है । इसका फायदा हुआ है मुकेश अम्बानी को जो सबसे अमीर भारतीय की सूची में दूसरे पायदान पर थे २०.८ अरब डॉलर की पूंजी के साथ अब नम्बर १ पर काबिज़ हो गए है । चलिए कमसे कम इस मंदी की मार झेल रहे मुकेश अम्बानी के लिए कोई तो अच्छी ख़बर आई ।
शुक्रवार, 7 नवंबर 2008
हिन्दू शैतान बनाम ईसाई भगवान् -2
ऐसी हालत सिर्फ़ उन्ही राज्यों की नहीं है जहां बबाल मच रहे है , कमोबेश सारे आदिवासी बहुल राज्यों की यही दशा है । एक डॉक्युमेंटरी के सिलसिले में छत्तीसगढ़ के मैनपाट जिले में जाना हुआ था । मैनपाट कोरबा और पाहाड़ी कोरवा बहुल इलाका है । पहाड़ी इलाका होने के कारन यहाँ सड़क संपर्क बस कामचलाऊ ही है । बाक्साइट के खानों के इस इलाके में ज्यादातर लोग आजीविका के लिए बाक्साइट के खानों पर ही निर्भर है जो साल में ६ महीने चलती है । बाकी के ६ महीने मश्क्कत के होते है । इन इलाके में ज्यादातर जमीन सरकारकी रिकॉर्ड में आदिवासियों के पास है पर जमीनी हकीकत इसके उलट है ज्यादातर जमीनों पर बाहरी लोगों का कब्ज़ा है और मजे की बात ये की वो उन उन्ही से करवाते हैं जो उनके मालिक होते है । और बदले में उन्हें मिलता है बस पीने को कुछ रुपये और शाराब aisa नही है की इनकी हालात से सरकारी और गैर सरकारी संगठन अनजान है । ६ दिनों में मैं ऐसे १०-१२ गैर सरकारी संगठनों से मिला जो आदिवासियों की दशा और दिशा सुधाने में लगे है पर नतीजा सिफर । पिछले २१ दिनों से कंधमाल में हूँ शायद अभी कुछ और दिन रहूं । यहाँ की कहानी भी इससे इतर नही । अभी हाल तक कंधमाल चैनलों में छाया रहा । केन्द्र में बैठे मठाधीशों ने इसपर खूब राजनीति की अन्धाधुंध बयान दिया अब भी लोग आ रहे है । कंधमाल में बहुत बबाल हुआ काफी लोग मारे गए , चर्चो को तोड़ा गया मैं इसका समर्थन नही कर रहा पर मेरे हिसाब से आज भी कंधमाल में जो स्थिति है अगर फिर कोई बड़ी घटना हो तो कोई आश्चर्य नही होना चाहिए।
कंधमाल कुछ तथ्य आदिवासी बहुल इस जिले का इतिहास ज्यादा पुराना नही । सात लाख की आबादी वाले इस जिले में ५२ फीसदी कंध (आदिवासी) है । यहाँ झगरा कंधो और पणों (दलित) के बीच में है । इलाके की ५८ % जमीनों पर जहाँ कन्धों का कब्ज़ा है (सरकारी हिसाब) से वही १० % जमीन दलितों के पास है ।बाकि सामान्य लोगो के हिस्से है। कन्धों की आजीविका का मुख्या साधन जंगल और उनके उत्पाद है अपनी जमीनों पर खेती वो पणों की मदद से करते है (हालाकि अब ये पुरानी बात हो गई ) । यहाँ चर्च का प्रवेश १९२० में हुआ इसका कारण ये था की ब्रिटिश शासन के दौरान कंधमाल मद्रास के अंतर्गत गुमुसुर सब - डिविजन का पार्ट था । यहाँ बाली गुंडा और भजनगर में सबसे पहले चर्च की स्थापना हुई थी। इंडस्ट्री के नाम पर यह उड़ीसा के पिछड़े इलाको में से एक है । इस जिले में कुल १.३२ करोड़ की ६५ स्माल स्केल इंडस्ट्री है।
क्या है क्लेश : कंधमाल आर्थिक असमानता ,शोषण और अवैध मतान्तरण का जीता जागता उदाहरण है । इस तात्कालिक सांप्रदयिक संघर्ष का कारणमात्र मतान्तरण नहीं है । स्वामी जी की हत्या तो बोस्टन टी पार्टी की तरह एक तात्कालिक कारण है । इसका मूल कारण तो पर्णों के द्वारा लबे समय से किया जा रहा शोषण है जिनमे ये ईसाई मिशनरियां इन पणों की मदद करती है । पणों ने हमेशा से बिचोलिये की तरह काम किया है । ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजो के कृपा पात्र (क्योकि इनके बीच तभी से धर्मान्तरण शुरू )के रूप में कभी इन्होंने लगान वसूल करने का काम किया तो कभी नमक का । कंधो से संख्या में काफी काम होने के बाद भी दिन प्रतिदिन इनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति सुधरती चली गयी । किसी भी समुदाय को अपनी आर्थिक स्थिति सुधरने और आगे बढ़ने का पूरा हक़ है लेकिन किसी अन्य समुदाय के शोषण की कीमत पर नहीं। पणों ने ना केवल उनका शोषण किया बल्कि उनकी जमीनों संसाधनों पर भी कब्ज़ा किया और तो और आजादी के बाद जब धर्मान्तरि दलितों के आरक्षण पररोक लगी तो पणों ने एक नया रास्ता निकाला । आमतौर पर पाणों की बोलचाल की भाषा उड़ीया और कंधो की कुई है ( यह एक स्क्रिप्ट लेस भाषा है ) पणों ने कुई सीख ली थी उसका प्रयोग करके खुद को आदिवासी बताकर आरक्षण का लाभ लिया , फर्जी जाति प्रमाण पात्र बनवाए और उनका लाभ नौकरियों में एवं अन्य कार्य में किया । इसके लिए केस भी हुआ की उन्हें आदिवासी की मान्यता दी जाये क्योकि वो लिए कुई बोलते है । इसाईयों की आबादी को अगर देखे तो इस बात की तस्दीक होती है । ९१ में उनकी संख्या ७५ हजार थी जिसके जो०१ में बढ़ कर तक़रीबन सवा लाख हो गई वो भी उड़ीसा स्वतंत्र अधिनियम लागू होने के बाद । जिसके अनुसार हर मतान्तरण के लिए कलेक्टर की इजाजत जरुरी है । २००१ से नक्सलियो के क्षेत्र में सक्रिय होने से पणों को और बल मिला नक्सलियो ने पानो को प्रशिक्षित करना शुरू । इलाके के लोगों के अनुसार इसके एवज में उन्हें पैसा ईसाई मिशनरियों से मिलता है । फादर कल्तित का कहना है की कोई धर्मान्तरण नहीं हुआ तो फादर आखिर जिले में ईसाई जनसँख्या इतनी कैसे हो गयी ?
कंधमाल कुछ तथ्य आदिवासी बहुल इस जिले का इतिहास ज्यादा पुराना नही । सात लाख की आबादी वाले इस जिले में ५२ फीसदी कंध (आदिवासी) है । यहाँ झगरा कंधो और पणों (दलित) के बीच में है । इलाके की ५८ % जमीनों पर जहाँ कन्धों का कब्ज़ा है (सरकारी हिसाब) से वही १० % जमीन दलितों के पास है ।बाकि सामान्य लोगो के हिस्से है। कन्धों की आजीविका का मुख्या साधन जंगल और उनके उत्पाद है अपनी जमीनों पर खेती वो पणों की मदद से करते है (हालाकि अब ये पुरानी बात हो गई ) । यहाँ चर्च का प्रवेश १९२० में हुआ इसका कारण ये था की ब्रिटिश शासन के दौरान कंधमाल मद्रास के अंतर्गत गुमुसुर सब - डिविजन का पार्ट था । यहाँ बाली गुंडा और भजनगर में सबसे पहले चर्च की स्थापना हुई थी। इंडस्ट्री के नाम पर यह उड़ीसा के पिछड़े इलाको में से एक है । इस जिले में कुल १.३२ करोड़ की ६५ स्माल स्केल इंडस्ट्री है।
क्या है क्लेश : कंधमाल आर्थिक असमानता ,शोषण और अवैध मतान्तरण का जीता जागता उदाहरण है । इस तात्कालिक सांप्रदयिक संघर्ष का कारणमात्र मतान्तरण नहीं है । स्वामी जी की हत्या तो बोस्टन टी पार्टी की तरह एक तात्कालिक कारण है । इसका मूल कारण तो पर्णों के द्वारा लबे समय से किया जा रहा शोषण है जिनमे ये ईसाई मिशनरियां इन पणों की मदद करती है । पणों ने हमेशा से बिचोलिये की तरह काम किया है । ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजो के कृपा पात्र (क्योकि इनके बीच तभी से धर्मान्तरण शुरू )के रूप में कभी इन्होंने लगान वसूल करने का काम किया तो कभी नमक का । कंधो से संख्या में काफी काम होने के बाद भी दिन प्रतिदिन इनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति सुधरती चली गयी । किसी भी समुदाय को अपनी आर्थिक स्थिति सुधरने और आगे बढ़ने का पूरा हक़ है लेकिन किसी अन्य समुदाय के शोषण की कीमत पर नहीं। पणों ने ना केवल उनका शोषण किया बल्कि उनकी जमीनों संसाधनों पर भी कब्ज़ा किया और तो और आजादी के बाद जब धर्मान्तरि दलितों के आरक्षण पररोक लगी तो पणों ने एक नया रास्ता निकाला । आमतौर पर पाणों की बोलचाल की भाषा उड़ीया और कंधो की कुई है ( यह एक स्क्रिप्ट लेस भाषा है ) पणों ने कुई सीख ली थी उसका प्रयोग करके खुद को आदिवासी बताकर आरक्षण का लाभ लिया , फर्जी जाति प्रमाण पात्र बनवाए और उनका लाभ नौकरियों में एवं अन्य कार्य में किया । इसके लिए केस भी हुआ की उन्हें आदिवासी की मान्यता दी जाये क्योकि वो लिए कुई बोलते है । इसाईयों की आबादी को अगर देखे तो इस बात की तस्दीक होती है । ९१ में उनकी संख्या ७५ हजार थी जिसके जो०१ में बढ़ कर तक़रीबन सवा लाख हो गई वो भी उड़ीसा स्वतंत्र अधिनियम लागू होने के बाद । जिसके अनुसार हर मतान्तरण के लिए कलेक्टर की इजाजत जरुरी है । २००१ से नक्सलियो के क्षेत्र में सक्रिय होने से पणों को और बल मिला नक्सलियो ने पानो को प्रशिक्षित करना शुरू । इलाके के लोगों के अनुसार इसके एवज में उन्हें पैसा ईसाई मिशनरियों से मिलता है । फादर कल्तित का कहना है की कोई धर्मान्तरण नहीं हुआ तो फादर आखिर जिले में ईसाई जनसँख्या इतनी कैसे हो गयी ?
गुरुवार, 6 नवंबर 2008
हिंदू शैतान बनाम ईसाई भगवान -1
सितम्बर में कर्नाटक के उत्तर कनाडा में था जब हिंदू बनाम ईसाई के सांप्रदायिक तनाव और चर्च के तोड़ने की घटना अखबारों की सुर्खिया बन रही थी । मैं कर्नाटक में आगामी संभावित बिधानसभा चुनावों के मद्देनज़र ओपिनियन पोल में जुटा था । उत्तर कनाडा में ये मेरा तीसरा दिन था । हिन्दुओ ने यहाँ भी चर्चो को निशाना बनाया था । यही पर मेरी मुलाकात रोजी से हुई। ४२ साल की इस महिला की बेकरी की दुकान है । मैं इसकी दुकान के पास के एक होटल में ठहरा था । ५-७ दिनों में अच्छी जान -पहचान हो गई थी । रोजी पहले हिंदू थी । पति की मृत्यु के बाद उसके सामने जब रोजी रोटी की समस्या खड़ी हुई तो इसने पास के दो -चार ईसाई घरों में सफाई वगैरह का काम शुरु किया । इसी क्रम में इसकी मुलाकात एक नन से हुई । वो उस घर में आती थी जहाँ रोजी काम करने जाती थी । उस नन ने इसको कोई अपना काम करने की सलाह दी, उसके छोटे बच्चो का हवाला दिया इसके बाद रोजी अपना कोई बिज़नस करने को तैयार तो हो गई लेकिन उसके सामने पूंजी का सवाल अब भी था । ऐसे में उसकी मदद की उसी नन ने । उसने रोजी को कही से ५०,००० रुपये का क़र्ज़ दिलवाया और उसकी बेकरी की दुकान खुलवाई । रोजी अब तक हिंदू ही थी । दुकान खुलने के बाद उसके घर का खर्च तो दुकान की आमदनी से चलता पर खर्च से ज्यादा बचना मुस्किल था जिससे क़र्ज़ अदा की जाए । क़र्ज़ की रकम दुकान खुलने के सात महीने के बाद भी क़र्ज़ की रकम जस की तस् थी। बकौल रोजी " मैं इसी दुकान से उतना नही कमा पा रही थी की क़र्ज़ भी चूकौ । तब रोजी के सामने ये विकल्प रखा गया की अगर बप्तिस्ता ले ले तो उसका पुरा क़र्ज़ केन्द्र सरकार के लोन योजना माफी की तरह माफ़ हो सकता है । अंत में वही हुआ उसने ईसाई धर्म स्वीकार किया और अपने ५०,००० के क़र्ज़ से मुक्त हुई। अब भाई एक गरीब हिंदू होने से अमीर ईसाई होना ज्यादा भला है । तो यह थी पी शांति के ईसाई बनने की कहानी । आदिवासी बहुल राज्यों में ऐसी अनेक शांति मिलेंगी जिनके साथ कमोबेश ऐसा ही कुछ हुआ होगा । ईसाई मतान्तरण उनके निज के विश्वास और धारणा का परिणाम नही बल्कि जिन्दगी जीने की उनकी जद्दोजहद और रोटी के संघर्ष का परिणाम है । मैं अबतक दसेक ऐसे लोगो से लोगो से मिल चुका हूँ जिनका मतान्तरण पहले क़र्ज़ देकर और बाद में उनका क़र्ज़ माफ़ कर के किया गया। क्रमश ........
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